जय श्रीकृष्णा दोस्तों। इस अध्याय में हम जानेंगे सांख्य योग (सांख्य योग का अर्थ है सन्यास, सन्यास का अर्थ है ज्ञान )। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्मा का ज्ञान देते हैं। पिछले अध्याय में हमने पढ़ा था अर्जुन विषाद। भगवान श्रीकृष्ण यहाँ से असली ज्ञान देना शुरू करते हैं जो कि हमारे जीवन पर उतना ही लागू होता है जितना अर्जुन के जीवन पर हुआ था। इस अध्याय के साथ हम आगे बढ़ते हैं अपनी फाइनल डेस्टिनेशन की तरफ।
मेरी सभी से विनती है कि इसको पढ़ने और समझने से पहले आप भगवान श्रीकृष्ण से इस ज्ञान की प्राप्ति की कामना करें। जब भी आप दुख में घिरे होते हैं उस समय भगवान का स्मरण करने मात्र से ही वह आपकी सहायता के लिए दौड़े चले आते हैं जिस प्रकार उन्होंने अर्जुन की सहायता की थी उसी प्रकार से वे हमारी सहायता के लिए भी तत्पर रहते हैं। जरूरी यह है कि हम उनको हर समय स्मरण रखें, चाहे सुख हो या दुख।
श्रीकृष्ण बताते हैं कि एक योद्धा कभी युद्ध से मुँह नहीं मोड़ता। वह उसको शोभा नहीं देता, यदि समस्या आपके सामने है तो समस्या को मन की कमजोरी मत दिखाओ अर्थात दुर्बल महसूस मत करो और उस समस्या से लड़ते हुए आगे बढ़ो। जब आप समस्या का सामना करते हो तो कई बार ऐसा होता है कि परिस्थितियां आपके अनुकूल नहीं होती, तो उस समय हम बहुत ही कमजोर महसूस करने लगते हैं, जिसके चलते हम गलत को भी सही समझ कर अपना लेते हैं और अधर्म की ओर बढ़ने लगते हैं लेकिन श्रीकृष्ण कहते हैं यह नपुंसकता को बढ़ावा देने वाला कर्म है।
अर्जुन एक श्रेष्ठ योद्धा थे। उनको निद्रा पर विजय प्राप्त थी और कहा जाता है जो निद्रा पर विजय प्राप्त कर लेता है उससे श्रेष्ठ दुनिया में कोई नहीं होता लेकिन ऐसा श्रेष्ठ व्यक्ति जब डर जाता है और भगवान की शरणागति में जाता है तो भगवान उसकी भी सहायता जरूर करते हैं जैसे उन्होंने अर्जुन की की थी। श्रीकृष्ण को हमने कहीं लीलाओं में सुना होगा कि वह दुखी को देखकर हमेशा मुस्कुराते हैं तो आप सोचते होंगे इसका क्या कारण है। इसका कारण यही है कि वह त्रिकालदर्शी हैं। वह आने वाले हर पल को, हर क्षण को जानते हैं और इससे वह हमें यही सिखाते हैं कि हम जिस क्षण में हैं अर्थात वर्तमान में हैं हमें उस वर्तमान के पल को ही जीना चाहिए क्योंकि बुद्धिमान व्यक्ति बीते हुए कल का विषाद नहीं करता और आने वाले कल के लिए चिंतित नही होता, वह आज मैं ही अपने जीवन को व्यतीत करता है।
भगवान का ज्ञान हमें फाइनल डेस्टिनेशन की ओर ले जाता है अर्थात इसका मतलब बहुत ही साधारण सा है कि हमें किसी भी बात का शोक नहीं मनाना चाहिए।
श्रीकृष्ण सांख्य योग में बताते हैं कि हम कालचक्र में फंसे हैं। हम आते हैं और जाते हैं। हम कल भी थे और आगे भी होंगे। यह जीवन का खेल निरंतर चलता रहेगा। भगवान कहते हैं कि यह बदलाव इस प्रकृति का नियम है लेकिन हमारी आत्मा कभी नहीं बदलती। वह आज इस शरीर में है तो कल दूसरे शरीर में ही होगी क्योंकि वह अविनाशी है।
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, हे! कुन्ती पुत्र जीवन के बदलाव को मनुष्य को सहन करना पड़ता है और उसे करना भी चाहिए क्योंकि यही नियम है। प्रकृति के नियम के अनुसार हमें इन तीन तापो (दैविक, दैहिक और भौतिक दुख ) को हमें सहन करना पड़ता है। जब तक हम इस शरीर में है हमें यह ताप सहन करने ही होंगे और इसी के साथ आगे बढ़ना होगा लेकिन भगवान यहाँ यह भी समझाते हैं कि जो ज्ञानी होते हैं वह किसी भी बात का विषाद नहीं करते, दुख प्रकट नहीं करते और न रोते होते हैं और वह ना ही बहुत ज्यादा उत्तेजित होते हैं क्योंकि वह जानते हैं कि यह भाव एक सा नहीं रहता अर्थात समय बदलता है कुछ बुरे के बाद अच्छा होता है और कुछ अच्छे के बाद भी बुरा हो सकता है यही प्रकृति की सच्चाई है।
यहाँ दोस्तों मैं आपको एक उदाहरण दूंगा- एक राजा था जिसका नाम अकबर था और उसका दरबारी था बीरबल। एक दिन राजा बीरबल से कहते हैं कि बीरबल मुझे कुछ ऐसा लिख कर दो जिसे मैं खुशी में पढ़ो तो मैं दुख को महसूस कर पाऊं और दुख में पढ़ो तो खुश हो जाऊं। बीरबल बहुत ही सनातन धर्मी और भागवत पुरुष थे, वे अकबर को लिख कर देते हैं कि यह “समय बीत जाएगा”, अब अकबर इसे पढ़कर बहुत ही खुश होता है क्योंकि यह दो शब्द अपने आप में परिपूर्ण है।
अब आप जब भी दुख में हो और आप ये पढ़े कि यह समय बीत जाएगा तो आप जान जाएंगे कि अगले ही पल कुछ ना कुछ खुशी से भरा मिलेगा और अगर आप बहुत ही खुश हैं तो आप इसे पढ़ेंगे तो आप समझ जाएंगे कि अगले पल कुछ बुरा भी हो सकता है। भगवान श्रीकृष्णा यही समझा रहे हैं कि एक बुद्धिमान पुरुष नित्य ही स्थिर रहता है वह दुख में ना तो अधिक दुखी होता, खुशी में ना अधिक खुश होता।
श्री कृष्ण कहते हैं नित्य वही है जो सत्य है और सत्य वही है जो हमारे भीतर है अर्थात यहाँ से श्रीकृष्ण हमारी आत्मा के बारे में बात कर रहे हैं। भगवान यहाँ अर्जुन को प्रेरित करते हैं “अधर्म के विरुद्ध अर्जुन तू युद्ध कर क्योंकि तू सिर्फ शरीर का अंत करेगा आत्मा तो नाशवान है अर्थात अमर है इसका अंत करना तो संभव ही नहीं और जो सोचता है कि मैं आत्मा का नाश कर दूंगा उससे बड़ा मूर्ख पुरुष कोई नहीं क्योंकि आत्मा आज शरीर को छोड़ेगी तो अगले ही पल कर्म अनुसार दूसरे शरीर को प्राप्त करेगी”।
भगवान श्रीकृष्णा बताते हैं कि व्यक्ति इस धरती पर अर्थात इस दुःखालय पर सिर्फ अपने सुखों की प्राप्ति के लिए कर्म करते हैं और ऐसे कर्म अधर्म की ओर बढ़ावा देते हैं लेकिन जो ज्ञानी व्यक्ति होता है वह अपनी आत्मा के लिए कर्म करता है ऐसे कर्म ही आत्मा को संतुष्ट करते हैं और मोक्ष की ओर ले जाते हैं श्रीकृष्ण कहते हैं भौतिक सुखों में फसना आत्मा को मुक्त होने से रोकता है।
भगवान आत्मा का ज्ञान इसलिए दे रहे हैं क्योंकि वह कहना चाह रहे हैं शोक करने का जीवन में कोई अर्थ नहीं है अर्थात जीवन में हम कई बार ऐसी बातों पर शोक करते हैं जो कि अस्थाई भौतिक सुख और दुख से मिलता है। जीवन का परम सत्य आत्मज्ञान ही है तो इस जीवन में हमें आत्मज्ञान को समझने में लगाना चाहिए तभी हम अपनी फाइनल डेस्टिनेशन को प्राप्त कर पाएंगे।
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो ज्ञानी तो होते हैं लेकिन सही गलत का चयन नहीं कर पाते जैसे कि महाभारत में भीष्म पितामह। उसी प्रकार इस जीवन में ऐसे भी लोग हैं जो ज्ञान समझते हैं और कुछ लोग सुनकर ज्ञान को जानते भी हैं लेकिन वह कुछ ही पल बाद भोग-विलास में लगकर ज्ञान को भूल जाते हैं तो कमेंट में बताइए दोस्तों की आपने भी कभी ऐसा किया है।
भगवान कहते हैं कि जो व्यक्ति चुनौतियों का सामना करता है उन्हें धर्म के अनुसार पूर्ण करता है वही मोक्ष की प्राप्ति के द्वार तक जा पाता है। भगवान अर्जुन से कहते हैं हे! पार्थ अगर तू इस युद्ध से भागेगा तो लोगों तुझे अपमानित करेंगे और अगर युद्ध करेगा चाहे जो भी उसका परिणाम हो उससे तू सम्मान को प्राप्त करेगा।
इसका अर्थ ये हुआ दोस्तों कि हमें अपनी जिम्मेदारी से भागना नहीं चाहिए अपने परेशानी का डटकर सामना करना चाहिए, परेशानी से भागना जीवन को नर्क की ओर ले जाने वाला कर्म होता है क्योंकि आपके निंदा करने वाले इसी ताक में रहते हैं कि कैसे आपको नीचा दिखाएँ। इसलिए हमें पूरी जी जान से अपनी समस्या से लड़ना चाहिए क्योंकि चुनोतियों का सामना करने से हम अनुभव प्राप्त करते हैं अर्थात अगर आप हार भी जाएं तो भी आपको अनुभव की प्राप्ति होगी। इसका अर्थ यह है कि हमें लाभ-हानि दुख-सुख इन सबको एक बराबर समझ कर युद्ध करना चाहिए या यूं कहें कि हमें अपने कर्म को उसके बिना फल की चिंता के करना चाहिए।
भगवान हमें ज्ञान योग देते हैं और उसी के साथ कर्म का महत्व बताते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो कर्म भोगों की प्राप्ति और स्वर्ग की प्राप्ति के लिए किये जाते हैं ऐसे लोग ढोंगी होते हैं क्योंकि वह सुख और ऐश्वर्य से परे कुछ देखते ही नहीं। उदाहरण के तौर पर आपन एकादशीे व्रत रखा है और आपके मन में खाने का विचार चल रहा है तो भगवान के अनुसार ऐसा व्रत व्यर्थ ही है| ऐसे व्यक्ति कर्मों के फलों को भोगने के लिए कर्म करते हैं और भगवान चेतावनी देते हैं कि हमें ऐसे व्यक्तियों से दूरी बनाए रखनी चाहिए क्योंकि इस तरह की मानसिकता के व्यक्ति नरक की ओर जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों की रुचि कर्म में नहीं अपितु उनसे मिलने वाले फलों में होती है अर्थात कर्म के परिणाम में आसक्ति रखते हैं और अपने कर्म को परिपूर्ण तरीके से पूर्ण नहीं कर पाते उसमें कुछ ना कुछ गलत या त्रुटिपूर्ण कार्य करते हैं जो कि उनके पतन का कारण बनता है।
भगवान स्पष्ट रूप से समझाना चाहते हैं कि हमें अपने कर्म स्थिर मानसिकता के साथ करते रहना चाहिए। हमें लाभो में आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। अपनी कामनाओं को त्याग देना चाहिए क्योंकि कामनाएँ लालच को बढ़ावा देती हैं और मोक्ष द्वार से दूर करती हैं इसलिए मन को एकाग्र कर हमें आगे बढ़ना चाहिए इसलिए हमें भोग की वस्तुएं त्याग देनी चाहिए। त्यागने का अर्थ यहां पर यह है कि उसका विचार भी मन में नहीं होना चाहिए तभी हम इंद्रियों को वश में कर मन पर काबू कर पाएंगे। यही एक ज्ञानी पुरुष की पहचान है क्योंकि जो सिर्फ अपनी इंद्रियों की तृप्ति के बारे में सोचता है ऐसा व्यक्ति अधिक सोचने के कारण अपनी स्मरण शक्ति का नाश कर देता है और भोग में डूब कर बर्बाद हो जाता है और इससे उसका अहंकार भी बढ़ता है।
हमें इंद्रियों के नियंत्रण से बाहर निकल कर आगे बढ़ना चाहिए, अपने लक्ष्य को पूर्ण करना चाहिए। एकाग्र चित्त से भगवान का नाम लेकर आगे बढ़ना चाहिए और अपने लक्ष्य की प्राप्ति करनी चाहिए क्योंकि इसी से प्राप्त होती हैे ब्रह्म स्थिति, जो हमें लक्ष्य प्राप्त करने में हमारी सहायता करती है। तो दोस्तों इस अध्याय में भगवान ने कामयाबी की सीढ़ी चढ़ने का रास्ता बताया है बाकी अगले अध्याय कर्म योग में हम जानेंगे कि कर्म में अकर्म को कैसे प्राप्त करें।
तो यह ज्ञान भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को महाभारत के दौरान दिया था। अगर मेरी व्याख्या में कुछ भी त्रुटि हुई हो तो मैं आपसे और भगवान से क्षमा मांगता हूँ और आप सभी को प्रेरित करता हूं कि आप श्रीमद्भागवत गीता का पूर्णतः अध्यन करें क्योंकि यह आपके जीवन की सभी समस्याओं को दूर ही नहीं उनसे मुक्त भी कर देगी और आप जान पाएंगे कि आपकी फाइनल डेस्टिनेशन क्या है।
(सहायक) Contributor
श्री आशुतोष बंसल
श्री अमित राजपूत
पिछला अध्याय यहाँ पढ़े- अध्याय- 1 “अर्जुन विषाद”
अगला अध्याय यहाँ पढ़े- अध्याय- 3 “कर्म योग”
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