इस अध्याय में अर्जुन प्रकृति और पुरुष, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ तथा ज्ञान और ज्ञान के लक्ष्य के विषय में श्रीकृष्ण से जानना चाहते है। दोस्तों इस अध्याय को समझने में मुझे काफी समय लगा, जिसके बाद ही मैं यह आप तक ला रहा हूँ। आशा करता हूँ मैं इसको सही ढंग से आसान शब्दों में आपको समझा सकूँगा।
प्रकृति एक तो हमारे चारों ओर है जिसे हम nature कहते है। लेकिन उसी प्रकार एक प्रकृति हमारे अंदर भी स्थित है जिसका उद्देश्य ज्ञान हांसिल करना है।
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ ये शब्द सुनने में कठिन है और यह समझना कि इसका हमारा जीवन से क्या ही संबंध हो सकता है। यकीन मानिए संबंध बड़ा ही गहरा है।
क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का अर्थ
यहाँ क्षेत्र का अर्थ हमारे शरीर से है जोकि हमारे कर्मों से निर्मित है। आसान शब्दों में कहूँ तो खेती मे बोए बीज के अनुसार ही फसल पैदा होती है ठीक उसी प्रकार हमारे कर्म अनुसार हमारा शरीर प्राप्त होता है।
क्षेत्रज्ञ का अर्थ यहाँ हमारे ज्ञान से है, अर्थात जो व्यक्ति कर्म के महत्व और उससे होने वाले लाभ व हानि को जनता है उसे क्षेत्रज्ञ कहते है।
यह ज्ञान श्री कृष्ण अर्जुन को बताते हुए कहते है कि बहुत से ऋषियों और मुनियों ने तपस्या के बाद इस ज्ञान को जाना, जिसका वर्णन ब्रह्म सूत्र और वेदों में भी है लेकिन कृष्ण हमे सिर्फ जानने योग्य या यूं कहें जो जरूरी है वही बता रहे है।
क्षेत्र अर्थात हमारे शरीर(देह ) का स्वरूप 5 महाभूतों से बना है- अग्नि, जल, वायु, आकाश और पृथ्वी, जिसकी मूल प्रकृति है अहंकार, बुद्धि, और हमारी इंद्रिया।
मूर्ख व्यक्ति
यहाँ प्रभु उन मुरखानंद व्यक्तियों की बात कर रहे हैं जो सिर्फ इंद्रियों की तृप्ति के लिए ही दुनिया की भीड़ में भागते रहते है, वह यह जानना ही नहीं चाहते कि उनके कर्मों से ही वह सेकड़ों जन्मों से इसी दुनिया में बार बार जन्म ले रहे है और लेते रहेंगे, क्योंकि हमारे कर्म ही हमारे मोक्ष और अगले जन्म का कारण होते है।
इसलिए ही क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का ज्ञान देकर श्री कृष्ण हमे इस जनम मरण के चक्र से अर्जुन व् हमे बाहर करना चाहते है। जोकि हम इस ज्ञान के मर्म को जान कर ही हो सकते है।
क्षेत्र व् कर्म
हमारे कर्म खेती में बोए बीज के तरह है जिसे काटने के लिए हमे जन्म लेना ही पड़ता है। हमारे आसपास कुछ लोग दुखी और कुछ लोग सुखी होते है। वह उनके कर्म अनुसार ही सुख व दुख भोगते है। दोनों ही स्थिति में जन्म तो लेना ही पड़ता है क्योंकि कर्म अच्छा करोगे तो अच्छा पाओगे और बुरा करोगे तो बुरा ही पाओगे। लेकिन दोनों ही अवस्था में जन्म मरण के चक्र से बचा नहीं जा सकता है। इससे बाहर आने के लिए श्रीमद भागवद गीता के ज्ञान का सहारा बहुत जरूरी है।
कुछ मनुष्य कर्म के चक्र में इस प्रकार फसे होते है जो अध्यात्म को जान तो लेते है परंतु उनका लोभ स्वर्ग प्राप्ति में होता है और कुछ मूर्ख तो बस धन व काम में इस प्रकार चूर होते है जैसे वो अमर हों, और मृत्यु उनको छू कर टक से निकल जाएगी। प्रभु अर्जुन को यह गूढ़ ज्ञान इसी से बचने के लिए दे रहे है और इसी ज्ञान को क्षेत्रज्ञ कहते है।
आपने देखा होगा कुछ व्यक्ति अपने जीवन मे बहुत धन अर्जित करते है और एक समय आता है वह खुद को भगवान समान मानने लगते है और अपने धन की ताकत के आगे किसी को कुछ नहीं समझते लेकिन श्री कृष्ण के ज्ञान के अनुसार ऐसे व्यक्ति बस अपने पूर्व कर्म का फल स्वरूप सब प्राप्त करते है जो कि ध्यान रखे सिर्फ एक समय अवधि तक ही पास रहता है।
ऐसे व्यक्ति दुष्ट संगत मे रह कर यह भूल जाते है कि सब वैभव लक्ष्मी के दाता परब्रह्म वासुदेव ही है लेकिन वह सृष्टि के नियम भूल कर अपनी इच्छा से गलत कर्मों मे पड़कर अपने मोक्ष के द्वार या यूं कहे permanent सुख से जन्मों के लिए दूर हो जाते है।
बार-बार जन्म मरण
हम हर जन्म में शादी, बच्चे, धन अर्जित करना यही कर्म में फसे रहते है और जो अगर आप सोच रहे है कि आपका जन्म क्यूँ हुआ और आप सोचते है कि पहले भी किसी जन्म में यह सब हो चुका है तो आप क्षेत्रज्ञ ज्ञान को जान रहे है। क्यूंकी इस विषय में सोचना और उसको जानना ही क्षेत्रज्ञ है।
श्री कृष्ण बताते है एकांत सिर्फ योगी को पसंद होता है क्यूंकी वह आत्म चिंतन करके ज्ञान को समझता है और उसपर चलता है। आगे श्री कृष्ण अर्जुन को कहते है अव्यविचारिणी भक्ति ही एक मात्र उपाय है जन्म मरण के चक्र से बचने का। इस भक्ति का अर्थ ऐसी भक्ति से है जिसमे वासुदेव कृष्ण के अलावा कोई ना हो और एकांत में ध्यान करना जानता हो। जो इस भक्ति को करता है ज्ञान को जान लेता है वह व्यक्ति इस दुनिया के सभी कर्म विषय भोगों को करते हुए भी मोक्ष अर्थात कृष्ण को प्राप्त होता है।
जो मनुष्य तत्व ज्ञान को समझ लेता है वह परम सुख प्राप्त करता है और इसी ज्ञान से यह जान पाता है कि आत्मा ही सब कुछ है और आत्मा को जान लेना ही परमात्मा से साक्षात्कार है क्यूंकी आत्मा है तो प्रभु का अंश लेकिन वह ना प्रभु को मलिन कर सकती ना स्वयं हमे, आत्मा तो स्वतंत्र है और हमारे हर कर्म की साक्षी है। परंतु हमारे हर कर्म की भोगता भी आत्मा ही है। जैसे की आपके खराब कर्मों के कारण आप कुत्ते का या किसी नीच योनि मे जन्म पाए तो उसे आत्मा को भी भोगना पड़ेगा।
परब्रह्म क्या है?
जिस प्रकार हम हवा में नमी (moisture) नहीं देख सकते है ठीक उसी प्रकार परब्रह्म है जिसने हमे धारण तो कर रखा है लेकिन हम उसे बिना योग शक्ति के हम देख नहीं सकते है। परब्रह्म एक ऐसी सच्चाई है जो हर मनुष्य के समझ के परे है। कुछ एक ही है जो इसे जान व समझ पाते है।
इस दुनिया में हम अलग अलग धर्म बन गए है जो सब मनुष्य ने अपनी झूठी इच्छाओ की पूर्ति के लिए बना लिए है, लेकिन भगवान अर्थात परब्रह्म एक ही है जिनसे हम उत्पन्न हुए है। जो परब्रह्म को और उसके ज्ञान को जानले वही जन्म मरण के फेरे से बच सकता है।
तत्व ज्ञान क्या है?
परमात्मा और उसके ज्ञान को जान लेना ही तत्व ज्ञान है। इसी ज्ञान से परमात्मा हांसिल होते है। क्यूंकी उनको खरीदा नहीं जा सकता, उनको बस समझा जा सकता है। इसलिए यह ज्ञान वो अर्जुन को देते हुए बताते है कि इसे जानने मात्र से ही उसका कल्याण होगा।
आगे श्री कृष्ण बताते है प्रकृति और पुरुष दोनों ही अनादि है अर्थात शिव और शक्ति है जिनके साथ आने से ही दुनिया आगे चलती है। और इसी प्रकृति से उतपन होते है तीन गुण सात्विक, राजसिक, तामसिक।
इन तीनों गुणों के आधार पर ही हम जन्म की योनि प्राप्त करते है। जो राजसिक गुणों मे रहता है जैसे की अहंकार, क्रोध वह मनुष्य योनि मे जन्म पाता है, और जो तामसिक गुणों मे रहता है जैसे की मास, शराब इतियादी और काम वासना जैसे कर्म करता है वह नीच योनि (पशु, कीड़े) मे जन्म पाता है।
जो सात्विक गुणों मे रहता है सात्विक आहार ग्रहण करता है वो देव योनि प्राप्त करता है और ऐसे व्यवहार के व्यक्ति ही मोक्ष भी प्राप्त करते है क्यूंकी इस प्रकार के लोग प्रभु के नाम मे ही निष्काम भाव से लिन रहते है। और अपने हर कर्म को उनके चरणों मे समर्पित करते है।
इस अध्याय का मर्म-
इस अध्याय में श्री कृष्ण ने अर्जुन को कर्म का महत्व बताते हुए समझाया कि कैसे व्यक्ति कर्म को काटता है, हर जन्म वो बोए हुए बीज का फल प्राप्त करता है। और इसी प्रकार जन्म मरण के फेरो में बंधा रहता है। आगे बताते है कि मनुष्य ने परब्रह्म जोकि एक ही है उसे अलग अलग रूपों में बाँट लिए है जिससे वो असली ज्ञान से विमुख हो गए है।
भगवान अर्जुन को गीता के मध्यान से तत्व ज्ञान को समझा रहे है कि कैसे वो सभी सुखों और दुनिया समाज के कर्मों को निष्काम भाव से कृष्ण भक्ति करते हुए इस जन्म मरण के चक्रव्यूह से बाहर आ सकता है।
आशा है कि आपको इस अध्याय में बताए ज्ञान का मर्म मैं समझा पाया हूँ, गलती के लिए भगवान श्री कृष्ण और आप सभी से माफी चाहूँगा।
अपने कर्मों के साथ हरि भजन करते रहे, क्यूंकी प्रभु कहते है “मेरे नाम में तू, तेरे काम में मैं।” जो भगवान के भजन में रहते है उनके काम अपने आप बनते चले जाते है।
तो इस अध्याय को यही पूर्ण करते है। सभी प्रेम से बोलो राधे राधे। जय श्री कृष्ण।।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण
कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम
राम राम हरे हरे ॥
गुरु आशीर्वाद-
श्री अमोघ लीला प्रभु जी
प्रेरणादायक-
श्री आशुतोष बंसल
श्री हित प्रेमानंद जी महाराज
लेख सहायक-
श्री अमित राजपूत
पिछला अध्याय यहाँ पढ़े- अध्याय-12 “भक्ति योग”
अगला अध्याय यहाँ पढ़े- अध्याय- 14 “Not Published”
श्री हरिवंश
आपने सही कहा कि हम संसार में धन कमाना ही सर्वर्थ समझ लेते है ये भूल जाते है कि श्री ठाकुर जी ने हमें ये सब साधन सिर्फ जीवन को सरलता से जीने के लिए दिए है और ये जन्म ही हमारा द्वार है जो हमें इस (अंधकार रूपी संसार) और से उस (श्री जी के चरण कमलों की प्राप्ति) और ले जाएगा लेकिन हम बस इसी उधेड़ बून में अपना जीवन निकाल रहे है और सब पता होते हुए भी अपना वक़्त इस भौतिक जगत में लगाए बैठे है जिस प्रकार श्री कृष्ण ने अर्जुन को निष्काम भाव हो कर कर्म को करते हुए श्री कृष्ण भक्ति करते हुए इस जीवन के जन्म मरण के चक्कर से कैसे मुक्ति पा सकता है उसी प्रकार हमको भी अर्जुन के पथ पर चलते हुए श्री हरि नाम लेते हुए जीवन को जीना चाहिए !
हिमांशु जी जैसे आप श्री मद्भागवत गीता के प्रत्येक अध्याय को सूक्ष्म रूप से हमारे सामने प्रस्तुत करते आए है उसी प्रकार श्री ठाकुर जी आपको इस पथ पर सदेव प्रेरित करते रहे और आप इसी प्रकार हमको भगवत प्राप्ति का सरलता पूर्वक अवगत कराते रहे और हमें अध्यात्म से जोड़ते रहे !
आपका बहुत बहुत धन्यवाद व शुभ आशीष
जय जय श्री राधे श्याम
जय जय राधावल्लभ श्री हित हरिवंश
राधे राधे प्रभु जी आपने भगवद ज्ञान को अच्छे से समझा यही ठाकुर जी की प्रत्येक मनुष्य के लिए इच्छा है। आपका मेरा कर्म इस मार्ग पर चलना और हर व्यक्ति को साथ चलाना है।
और आपके जवाब ने अध्याय 13 का मर्म और सरलता से यहां लिख दिया। आशा है सभी जो लोग ये पढ़े वो आपके उत्तर से भी ज्ञान की प्राप्ति करें।
बोलो जय जय श्री राधा वल्लभ।।