इस अध्याय में श्री कृष्ण अर्जुन को दोबारा से अपने वचन कहते है क्योंकि भगवान जब अपने भक्त की जिम्मेदारी ले लेते हैं तो वो उनको अंत तक नहीं छोड़ते उसकी नैया पार लगवाते ही हैं। तो हमे भी अर्जुन के तरह ही श्री कृष्ण की शरण हो जाना चाहिए।
श्री कृष्ण कहते हैं मेरा जन्म और कर्म दोनों ही अलौकिक हैं इसलिए मेरे परम तत्त्व को देवता भी नहीं जानते क्योंकि उनके होने का कारण भी मैं ही हूँ वो मुझसे ही विस्तारित हुए हैं। मैं अजन्मा अनादि और सभी के जन्म का कारण हूँ।
जो मनुष्य मुझे जान जाता हैं वो पाप से मुक्त हो जाता हैं और इसलिए ही श्री कृष्ण हमे अपने विषय में विस्तार से बता रहे हैं क्योंकि कृष्ण को जान लेना और उनके कहे ज्ञान पे चलना ही एक मात्र कल्याण का रास्ता हैं।
इस अध्याय में श्री कृष्ण अपने विस्तार को समझाते हैं। वैसे तो श्री कृष्ण अनंत हैं, उनकी व्याख्या करना संभव ही नहीं हैं लेकिन फिर भी श्री कृष्ण अर्जुन को समझाने के लिए अपनी व्याख्या ठीक उसी प्रकार करते हैं जैसे एक अध्यापक अपने शिष्य को विषय समझाने के लिए उदहारण का उपयोग करता हैं।
श्री कृष्ण ही हमारे हर भाव के कारण हैं हमारे यश,अपयश, कीर्ति के कारण भी वहीं हैं। आगे श्री कृष्ण बताते हैं, सबके अस्तित्व से पहले सात महर्षि थे, और उनसे भी पहले 4 सनकादिक- मन, बुद्धि, चित, और अहंकार थे। यह सब श्री कृष्ण कहते हैं मेरे ही संकल्प से पैदा हुए हैं। इसका अर्थ हैं जो हैं और जो नहीं भी हैं वह कृष्ण से ही हैं।
ये दुनिया भी श्री कृष्ण के संकल्प से बनी हैं। इस दुनिया में हम जन्मे और इस दुनिया को देखने समझने के लिए हमारे भाव उत्पन्न हुए जो की श्री कृष्ण से हमे प्राप्त हुए हैं, इसलिए कहा जाता हैं की अच्छा सुने देखे और अच्छे ही कर्म करें क्योंकि आप अच्छे भाव रखेंगे तो अच्छी संगती में रहेंगे और श्री कृष्ण बताते हैं मेरी स्तुति करने वाले को मैं ही प्राप्त होता हूँ। अर्थात अच्छी संगती में रह कर भजन करना और भगवान की चर्चा करने मात्र से ही आप मोक्ष प्राप्ति कर सकते हैं।
हमे भगवान, मोह लालच आदि विकारो का त्याग करके निष्काम कर्म करने को कहते हैं और बताते हैं कि हमारे चेतना रूप में हमारे अंदर कृष्ण ही स्थित हैं और अच्छे कर्म करने पर वह हमारी सहायता जरूर करते हैं। इसे यूँ भी समझ सकते हैं की भगवान हमारे कल्याण के लिए ह्रदय परिवर्तन भी कर सकते हैं। मन की इच्छा उनको जानने की करके तो देखो वो कैसे ही आपकी कमीओ को आपकी शक्ति बना कर आपका उद्धार करते हैं.
अर्जुन अब श्री कृष्ण को समझने लगते हैं और स्वयं भगवान की सुनी बातें दोहरा कर अपने ज्ञान को पक्का करते हैं और कहते हैं आपके इस स्वरुप को ना देवता जानते हैं ना दानव। श्री कृष्ण को पर-ब्रह्म रूप में जानने के बाद अर्जुन कहते हैं माधव आप ही पुरुषोत्तम, देवों के देव, सभी भूतो के स्वामी हैं और आप ही हमारे अंदर स्थित हैं जो अपने से अपने को जानने का भाव जागृत करते हैं इसका अर्थ हैं खुद को खुद से जानना और समझना (Self Analysis)।
अर्जुन श्री कृष्ण की विशेषता जानने की इच्छा करते हैं और जानना चाहते हैं कि किस भाव से वह उनका चिंतन करें और यह सिर्फ कृष्ण ही बता सकते हो क्योंकि दूसरा कोई हैं ही नहीं जो उनके बारे में जनता हो।
देखिये दुनिया का सबके बड़ा धनोधर अर्जुन, ज्ञान की जिज्ञासा को जैसे प्रकट करता हैं हमे भी उसी प्रकार ज्ञान को जानने की पूरी कोशिश इसी तरह करनी चाहिए, तब हम भी अर्जुन के तरह इस जीवन के युद्ध को जीत सकते हैं और इसमें भगवान हमारी सहायता के लिए हमेशा हमारे साथ आते हैं।
अर्जुन भगवान श्री कृष्ण की सीमा और विस्तार के बारे पूछते हैं, भगवान अर्जुन की जिज्ञासा को देख कहते हैं, यह मैं तुझे जरूर समझाऊंगा “पार्थ” लेकिन इसको समझना बहुत ही कठिन (या यूँ कहे असंभव) हैं, क्यूंकि मेरी सीमा जो तू देख रहा हैं कर्ण मात्र भी नहीं हैं। इसका अर्थ यह है कि जो दुनिया हम देख रहे हैं वह सिर्फ श्री कृष्ण की माया योग शक्ति का एक तिनके के बराबर भी नहीं हैं।
आगे श्री कृष्ण बताना शुरू करते हैं, मैं ही सबका जन्म दाता हूँ और सबके भीतर चेतना के रूप में स्थित हूँ अर्थात इसको हम अपनी 6th sense के रूप में समझ सकते हैं जोकि कभी गलत नहीं होती क्योंकि यही कृष्ण हैं।
आगे वह अपने विराट रूप को समझाते हैं। वह कहते हैं सभी जोतिओं में श्रेष्ठ ज्योति सूर्य की हैं वह मैं हूँ, वेदों में श्रेष्ठ साम वेद मैं हूँ, देवों श्रेष्ठ इंद्रा, मैं ही हूँ, हमारी इन्द्रिओ में श्रेष्ठ मन श्री कृष्ण ही हैं। प्राणिओ में श्रेष्ठ उनकी चेतना यह भी कृष्ण हैं और इसी चेतना के शरीर से निकलने पर मृत्यु हो जाती हैं।
आगे भगवान बताते हैं ऋग वेद में बताये रुद्रो में श्रेष्ठ रूद्र “शंकर” मैं हूँ।
पुरोहितो में मुख्य पुरोहित “ब्रहस्पति” मैं ही हूँ। जलाशयों में सबसे बड़ा जलाशय अर्थार्त “समुन्द्र” भी मैं हूँ. सर्पो में श्रेष्ठ “वासुकि” मैं हूँ और नागो में श्रेष्ठ “शेष नाग” भी मैं हूँ.
दानवो में श्रेष्ठ प्रह्लाद भी मैं हूँ (प्रह्लाद राक्षश हिरण्यकश्यप के पुत्र थे जो की भगवान विष्णु के परम भक्त थे), पशुओ में श्रेष्ठ पशु “सिंह” मैं हूँ, और पक्षिओ में श्रेष्ठ पक्षी “गरुड़” मैं हूँ। यज्ञ से हुई शुद्ध वायु जो, वातावरण को शुद्ध करती हैं वह “वायु” मैं हूँ। असुरो का नाश करने वाला मर्यादा परुषोतम “राम” मैं ही हूँ। भागीरथी “गंगा” भी मैं ही हूँ।
कालो में “महाकाल”, जन्म और अंत की वजह मैं हूँ, छंदो में सबसे बड़ा मंत्र “गायत्री” यह भी स्वयं हूँ। छल में सबसे बड़ा दुष्कर छल “जुआ” यह भी कृष्ण कहते हैं मैं ही हूँ।
आगे भगवान कहते हैं, सात्विक पुरुषो का “भाव” और उनकी “निश्यता” मैं ही हूँ, मैं ही “वासुदेव” और पांडवो में श्रेष्ठ “अर्जुन” हूँ, मुनिओ में श्रेष्ठ “वेद व्यास” भी मैं हूँ। वृक्षों में श्रेष्ठ वृक्ष “पीपल” मैं हूँ।
अगर आपमें कुछ श्रेष्ठ विशेषता हैं वो कृष्ण ही हैं। जीतने के लिए चाहिए होती हैं “निति” और गुप्त रखने के लिए रहना होता हैं “मोन” यह भी कृष्ण कहते हैं मैं ही हूँ। वह हर वस्तु जिसमे प्राण हो या ना हो वह श्री कृष्ण ही हैं। जो की अंत समय सब कृष्ण में ही विलय हो जायेगा।
श्री कृष्ण अपनी महिमा बताते हुए अर्जुन से कहते हैं मेरी किसी भी शक्ति का अंत और शुरुआत नहीं हैं। ये जितना तूने जाना यह बस तेरे समझने मात्र के लिए हैं। इसे आप उद्धारहण समझ कर भगवान की शक्ति को समझने का प्रयास कर सकते हैं। तो इस अध्याय में भगवान कृष्ण अपनी विभूतिओं का वर्णन करते हुए इतना ही बताते हैं। आप भी अब अपने आसपास श्री कृष्ण को हर कर्ण में ढूंढिए, शायद वो आपको आपके भीतर ही प्राप्त हो जायें।
दोस्तों मेरा प्रयास हैं आसान और कम शब्दों में इस ज्ञान को आप तक ला पाऊँ। यह कर्म श्री कृष्ण से मुझे मिला हैं। मेरा अनुरोध हैं भगवद ज्ञान को विस्तार से जानने के लिए आप भगवद्गीता पढ़ने का अभ्यास करें। मिलते हैं अगले अध्याय में- ।। जय श्री कृष्ण ।।
प्रेम से बोलो ।। राधे राधे
अगर मन में कुछ कृष्ण भावना जागृत हुई हो तो यह ब्रह्मसहिता में लिखा गया मंत्र जो की राम और कृष्ण नाम हैं, अपने कल्याण हेतु पढ़े।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण
कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम
राम राम हरे हरे।।
गुरु आशीर्वाद-
श्री अमोघ लीला प्रभु जी
प्रेरणादायक-
श्री आशुतोष बंसल
लेख सहायक-
श्रीअमित राजपूत
पिछला अध्याय यहाँ पढ़े- अध्याय- 9 “राज विद्या राज गुह्यं योग”
अगला अध्याय यहाँ पढ़े- अध्याय- 11 “Not Published”