
दोस्तों इस अध्याय के नाम का अर्थ है “परम गोपनीय विद्या”। यह विद्या धर्म युक्त या यूँ कहिये सभी ज्ञान की राज माता है।
यह विद्या हर प्रकृति और स्वाभाव के व्यक्ति के लिए बहुत फायदेमंद है। तो दोस्तों इस रहस्यमय ज्ञान को जान लेने में चांदी ही चांदी है।
अभी तक पिछले अध्याय में हमने कर्म योग, ज्ञान योग, भक्ति योग को जाना और आशा है उसे जाना ही नहीं बल्कि आप लोगो ने अपनाना भी आरम्भ कर दिया होगा और अर्जुन के भांति शुद्ध अवस्था में आ गये होंगे। अब जो ज्ञान श्री कृष्ण देंगे वो समझने के लिए शुद्ध मन होना बहुत आवश्यक है।
तो मेरे प्रिये जनो, श्रीमद्भगभवत गीता के अध्याय 9 के ज्ञान रूपी गंगा सागर में बहना आरम्भ करते है और जानते एक नया रहस्य श्री कृष्ण के शब्दों में।
भगवान अर्जुन को श्रद्धा के बारे में समझाते हैं कि कुछ मनुष्यो कि श्रद्धा भौतिक सुखो को पाने में इतनी ज्यादा होती हैं कि वो यह भी भूल जाते हैं कि सबका अंत मृत्यु ही हैं। जिसके कारण वो इस संसार में बार बार अलग अलग योनि में जन्म पाते हैं, लेकिन यही श्रद्धा वो मुझमे लगाएं तो इस संसार के सुख और मोक्ष दोनों ही प्राप्त कर सकते हैं।
श्री कृष्ण बताते हैं, इस जग में सब मुझसे ही विस्तारित हैं, यह ठीक उसी प्रकार हैं जैसे हवा आकाश में तो हैं लेकिन आकाश पर हवा का कोई असर नहीं हैं। ठीक इसी प्रकार हम कृष्ण से हैं लेकिन हमसे उनका कोई विस्तार नहीं हैं।
यह श्री कृष्ण की योग शक्ति हैं जिससे मनुष्य के शरीर में उनकी ही आत्मा हैं जिसका अर्थ हैं कि हम उनसे ही उत्पन हुए हैं अर्थात हमारा मूल पिता वही हैं या यूँ कहे जगत पिता वही हैं और उन्ही कि मर्जी से हमारा भरण पोषण भी हो रहा हैं।

जैसे कि हमने जाना हवा आकाश से उत्पन होती हैं लेकिन फिर भी आकाश को मलिन (गन्दा) नहीं कर पाती हैं। ठीक उसी प्रकार हम कृष्ण से उत्पन तो हुए हैं लेकिन अपनी बुराइओं और कर्मो से उनको मलिन नहीं कर सकते हैं।
यह उसी प्रकार हैं जैसे आकाश हवा को अपने से बहार जाने से सिमित तो कर देता हैं लेकिन हवा उस आकाश के दायरे में कही भी घूम सकती हैं उसी प्रकार हम कृष्ण के दायरे में तो हैं लेकिन कर्म करने के लिए स्वतंत्र हैं।
भगवान कहते हैं हे! अर्जुन, कल्प के अंत में प्रलय द्वारा सब मुझमे विलीन हो जाता हैं और काल के आरम्भ में, मैं ही वापस सब रचता हूँ। श्री कृष्ण इसे अपना कर्म बताते हैं और कहते हैं, मैं इस कर्म को बिना किसी भेदभाव के करता हूँ और इससे खुद को बिल्कुल भी नहीं बांधता बल्कि इसे अपना कर्तव्य मानता हूँ।
हमे अपने जन्म को स्वीकार करना चाहिए और कर्म करना चाहिए क्यूंकि कोई भी अपने कर्मो से बच नहीं सकता हैं।
श्री कृष्ण के अनुसार हमे कर्म बहुत श्रद्धा और ध्यान से करना चाहिए क्यूंकि यह हमारे भविष्य की रचना करते हैं और यही हमारे मोक्ष का कारण होते हैं।
कुछ लोग भगवान को कोसते हैं “हम तो इतने परेशान हैं और दूसरा इतना सुखी हैं, तो बताना चाहूंगा कि यह उनके पिछले कर्म अनुसार हैं कि वो आज संकट भोग कर रहे हैं। लेकिन सच तो यह हैं दोस्तों जो आज सुखी हैं वो कल जरूर दुखी होगा और जो दुःख की घडी में हैं वो कल जरूर सुख प्राप्त करेगा।
दोस्तों जिस धरती पर हम रह रहे हैं वो दुखालय कहलाता हैं और यहाँ दुखी और सुखी हर व्यक्ति सांसारिक भोग की आशा में भूल जाता हैं कि उसको जन्मो तक यह भोगना पड़ेगा चाहे वो अम्बानी जितना आमिर व्यक्ति ही क्यों ना हो। मेरी सलाह तो यही हैं निष्काम कर्म और कृष्ण भक्ति भाव में करे और हमेशा के लिए ही जन्म मरण की दुनिया को छोड़ भगवदधाम की और चले।
दुनिया की रचना का विज्ञान
ज्ञान तो सिमित हैं लेकिन अज्ञानता की कोई सिमा नहीं हैं। श्री कृष्ण कहते हैं कुछ लोग मुझे मानव समझने की भूल कर देते हैं यह नहीं जान पाते कि यह शरीर मैंने उनके कल्याण के लिए ही अपनी योग माया से धारण किया हैं। और इस भूल को कृष्ण मूर्खता बताते हैं क्यूंकि वह अविनाशी निराकार हैं और इस जगत के सञ्चालन करता हैं।
कौन से लोग श्री कृष्ण को जान पाते हैं?
व्यर्थ ज्ञान रखने वाले श्री कृष्ण को नहीं जान पाते हैं। ऐसे लोग खुद को समझदार और श्रेष्ठ मानते हैं लेकिन वह कार्य व्यर्थ ही करते हैं जो नर्क की ओर ले जाते हैं और इस जीवन से असीमित काल तक बांधते हैं।
राक्षसी स्वभाव के लोग, जो लोभ और लालच जैसे विकारो में आनंद ढूंढते हैं वो कभी कृष्ण को नहीं जान पाते हैं।
लेकिन देवीय भाव के लोग जैसे कि आप जो इस ज्ञान को पढ़ रहे हैं वह श्री कृष्ण को जान लेते हैं और अनन्य भाव से उनकी भक्ति करते हैं और निष्काम कर्म करते हैं जिससे वह सामाजिक भला भी करते हैं। ऐसे लोग दृण निश्चय वाले होते हैं और श्री कृष्ण पर पूरा विशवास रखते हैं।

ऐसे देवीय लोग बार बार कृष्ण ध्यान करते हैं और अंत में उन्हें ही प्राप्त होते हैं। दोस्तों जो कान्हा को प्राप्त हो जाता हैं वो जन्म मरण के चक्रवयूह से मुक्त होकर परम सुख पाता हैं।
आगे बताते हैं कि ज्ञान योगी श्री कृष्ण को निर्गुण निराकार रूप में भजता हैं वो जान जाता हैं कृष्ण कोई देहधरी मनुष्य नहीं बल्कि परम शक्ति हैं जिससे यह जगत और हम विस्तारित हुए है अर्थात हमारे जन्म दाता कृष्ण ही है।
श्री भगवान बताते है कि यज्ञ, मंत्र, अग्नि, स्वधा आदि मै ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत को धारण करने वाला, मूल माता- पिता मै ही हूँ। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद यह मै ही हूँ। ओमकार में जानने योग्य ॐ भी मै हूँ। सूर्य का तेज, वर्षा और उसका बरसना भी मै हूँ अर्थात आदि और अंत श्री कृष्ण ही है।
विद्या के तीन अंग ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, जो व्यक्ति इन वेदो के अनुसार चलते हैं वो कृष्ण उपासना ही करते हैं और देवो के स्वर्ग को भोगते हैं और श्री कृष्ण कहते हैं कि यह सुनिश्चित मै ही करता हूँ।
जो स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं कृष्णा उनको स्वर्ग भोग प्रदान करते हैं उनके पुण्य कर्मो अनुसार। लेकिन यह जानने योग्य बात हैं कि स्वर्ग का भोग कुछ समय का ही होता हैं और जो असत, लोभ-लालच, दुष्कर्म, अपना फायदा इत्यादि कि कामना करते हैं वो मृत्यु को ही प्राप्त करते हैं।
“योग क्षेमं वहाम्यम”
इसका अर्थ हैं जो मुझे यानि कृष्ण को अनन्य भाव से भजता हैं उस प्रेमी भक्त की जिम्मेदारी कृष्ण कहते हैं मै लेता हूँ और यह सुनिश्चित करता हूँ कि ऐसे भक्तो को सुख शांति और अंत समय मै ही प्राप्त होऊ।
दोस्तों भगवान हर अध्याय में हमे इस दुखालय से निकलने का मार्ग बता रहे हैं जो कि एक रहस्यमय विद्या हैं अब इसको समझना और अपने जीवन में अपनाना आपका कर्म हैं।
आगे भगवान बताते हैं अपनी एक और महिमा, जिसमे वो उन भक्तो की इच्छा को पूरा करते हैं जो दूसरे देवी देवताओ को पूजते हैं। जो व्यक्ति देवताओ को पूजता हैं वो उन्हें ही को प्राप्त होता हैं और पितरों को पूजने वाला अपने पितरो को प्राप्त होता हैं लेकिन यह मनुष्य मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते हैं क्योंकि यह अज्ञानी लोग हैं। यह लोग सिर्फ अपनी कामनाओ की सिद्धि के लिए पूजन करते हैं।

जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूप से प्रकट होकर प्रीतिसहित स्वीकार करता हूँ।
अर्थात हम जो कर्म करें चाहे वो हमारा खाना ही क्यों ना हो हम उसे कृष्ण को अर्पण करके ही करें। ऐसा करने से हम कर्म बंधन से मुक्त हो जाते हैं। वैसे तो श्री कृष्ण हर जगह व्याप्त हैं हर किसी मे हैं लेकिन भक्तो की जिम्मेदारी वो स्वयं ले रहे हैं।
श्री कृष्ण यह भी बता रहे है कि दुराचारी व्यक्ति भी अगर उन्हें भजे तो वह भी सज्जन पुरुष के समान माना जाता हैं और उसका कल्याण भी मैं करता हूँ।
जो भी व्यक्ति कृष्ण भक्ति करता हैं चाहे वो अमीर-गरीब या किसी भी वर्ण का हो वो मोक्ष प्राप्त करता हैं जोकि अंतिम सत्य हैं और जो मोक्ष नहीं प्राप्त कर पाता वो अगला जन्म अपने कर्मो अनुसार पाता हैं या तो पशु योनि या फिर मनुष्य योनि,
इसमें भी मनुष्य योनि कर्म आधारित हैं जैसे कि ब्राह्मण, क्षत्रिये, वैश्य और शूद्र।
दोस्तों इस अध्याय मे श्री कृष्ण यही रहस्य बताते हैं कि हे अर्जुन तू मुझ मे ही ध्यान लगा कर निष्काम कर्म कर और हमे भी अर्जुन के तरह ही इस जीवन को अपना युद्ध समझ कर कृष्ण भाव मे व ज्ञान मार्ग पर चल कर पूरा करना हैं। बाकी हमारे इस देश मे स्वतंत्र तो सभी हैं जैसे इच्छाएं आये आप कर सकते हैं।
प्रेम से बोलो राधे राधे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण
कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम
राम राम हरे हरे।।
गुरु आशीर्वाद-
श्री अमोघ लीला प्रभु जी
प्रेरणादायक-
श्री आशुतोष बंसल
लेख सहायक-
श्री अमित राजपूत
पिछला अध्याय यहाँ पढ़े- अध्याय-8 “अक्षर ब्रह्म योग”
अगला अध्याय यहाँ पढ़े- अध्याय- 10 “विभूति योग”
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Mai bhi adhyaay 10 par pahunch chuki hun. Kaafi accha likha hai