अध्याय- 3 “कर्म योग” (श्रीमद भगवद गीता सार: जीवन का आधार)

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य श्री कृष्ण।
आज हम जानेंगे “कर्म योग” के बारे में। इसमें हम जानेंगे की हम कर्म में अकर्म की अवस्था को कैसे और क्यों प्राप्त करते हैं।

“श्रीकृष्ण” अर्जुन को बताते है ऐसा कोई समय नही जब हम कर्म न करते हों। इससे पहले के अध्याय में हमने “सांख्य योग” (सन्यास योग) के ज्ञान को जाना और इस अध्याय में भी इसकी चर्चा करेंगे।
सांख्य योग में अर्जुन आत्म ज्ञान को प्राप्त करते हैं जिससे अर्जुन कर्म और सन्यास में उलझ जाते हैं और भगवान से पूछते हैं कि कर्म और सन्यास में क्या श्रेष्ठ है, क्योंकि वो भयंकर युद्ध के कर्म से बचना चाहते हैं और वो समझते हैं कि युद्ध करने से पापी हो जाएंगे। इसलिए वो सन्यास को बेहतर समझते हैं।

सन्यास से सरल कर्म

श्रीकृष्ण उनको एक गहरी बात समझाते हैं जिससे अर्जुन के संशय (Confusion) को दूर करते हैं और सन्यास से बेहतर कर्म को बताते है क्योंकि भौतिक जगत में सन्यासी बनना कठिन है और ये मार्ग तपस्याओं से भरा है। अर्थात “कर्म के माध्यम से भगवान को पाना (फाइनल डेस्टिनेशन) आसान” है। भगवान अब कर्म योग के बारे में बताना शुरू करते हैं। भगवान कहते है कि सन्यासी बनना भी बिना कर्म के बिना असम्भव है। अथार्त कर्म से बचने से कुछ भी हांसिल नही होता। मनुष्य किसी भी अवस्था में हो तो उसके न चाहते हुए भी उससे कर्म तो होते ही हैं।

भगवान कहते है जब तक जीवन रहेगा तब तक न चाहते हुए भी कर्म तो करना ही पड़ेगा। अर्जुन को समझाते हुए बताते हैं कि हर पल कर्म होना ही है तो क्यों न वो कर्म उसके विषय में जान कर किया जाए, क्योंकि उचित कर्म ही कर्म के बंधन से मुक्त कराता है। जो सिर्फ दिखावे के लिए कर्म करता है वो व्यक्ति ढोंगी कहलाता है और अपने जीवन का नाश भी करता है। इसे एक उदारहण से समझते हैं, किसी व्यक्ति ने गृहस्त जीवन का तो त्याग कर दिया और सन्यासी बन गया, लेकिन उसके बाद भी उसके मन में सांसार और नारी भोग की अभिलाषा है तो भगवान ऐसे व्यक्ति को घोर पापी बता रहे हैं।

निष्काम कर्म

श्रीकृष्ण के अनुसार जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों को काबू कर बिना किसी भोग की इच्छा के अपना कर्म करता है ऐसे कर्म को निष्काम कर्म कहते हैं। इस प्रकार का कर्म और इसका फल भगवान को समर्पित करते हैं ऐसे व्यक्ति श्रेष्ठ और सम्पूर्ण कर्मयोगी होते है। ऐसे व्यक्ति के सामने चाहें कोई सूंदर नारी या कोई स्वादिष्ट भोजन ही क्यों न आ जाए वो व्यक्ति अपने कर्म से नही भागता और अपने कर्म को निष्ठा पूर्वक पूरा करता है।

भगवान यहाँ हमे यज्ञ की महिमा बताते हैं। उनके अनुसार यज्ञ के द्वारा शुरू किया गया कर्म श्रेष्ठ होता है अर्थात श्रीभगवान के लिए किया गया यज्ञ देवी देवताओं को फली-भूत करता है और कर्मयोगी प्रसाद रूप में देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त करता हैं और भगवान कहते है जो बिना यज्ञ के कर्म करता है वो स्वार्थी और लोभी होता है आर्थत अहंकारी। वैसे तो यज्ञ वेदों में बताई विधि द्वारा करना श्रेष्ठ होता है लेकिन इस कलियुग में इस विधि से हर समय यज्ञ करना आसान नही है तो कलियुग में श्रीतुलसीदासजी के अनुसार

“कलियुग केवल नाम आधारा, सुमरि सुमरि नर उतरहिं पारा ”

-रामचरित्र मानस

अर्थात भगवन नाम-जप करने मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। या यूँ कहें इतना करना ही सम्पूर्ण यज्ञ के बराबर है।

Maha-Mantra

श्रीकृष्ण अनुसार जो सृष्टि के नियम से नही चलता वो व्यर्थ ही जीता है, ऐसा व्यक्ति मरता रहता है और अगल अलग योनि में दुबारा जन्म पाता है और अपने कर्म बंधन से मुक्त नहीं हो पाता है। इसलिए मनुष्य को आत्म ज्ञान को जानकर मोक्ष प्राप्ति के लिए अर्थात कर्मबन्धन से मुक्त होने के लिए जनकल्याण के कर्म भी करने चाहिए।

श्रीकृष्ण के अनुसार अगर जीवन को अच्छा बनाना चाहते हैं और सही प्रकार से कर्म करना चाहते हैं तो हमें भोगों को त्यागना चाहिए क्योंकि तभी हम अपने कर्मो द्वारा श्रेष्ठ बन पाएंगे और ऐसी मिसाल बना सकेंगे जिसको दूसरे व्यक्ति भी अपने जीवन में पालन कर सकें। यहाँ भगवान अर्जुन को स्वयं अपना उदाहरण देते हैं और कहते है कि “मैं तीनो लोको का स्वामी” हूँ, मैं जो चाहूँ वो पा सकता हूँ लेकिन मैं फिर भी धरती पर हर युग में प्रकट होकर कर्म करता हूँ जैसे मैं इस समय तेरा सारथी बनकर साथ हूँ। अगर मैं ही कर्म न करूँ तो धरती पर सब नष्ट और अनर्थ हो जाएगा।

चेतावनी

भगवान हमें चेतावनी देते है कि हमें घमंडी व्यक्ति से दूरी रखनी चाहिए क्योंकि इस स्वभाव के व्यक्ति खुद को सर्वश्रेष्ठ और सभी कारणों का कारण समझते है और अपने अहंकार में सोचते है कि उनकी बुद्धिमता के कारण ही हर कार्य सम्भव होता है। ऐसे अंहकारी व्यक्ति को श्रीकृष्ण मूर्ख और ढोंगी बताते हैं और कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति दुसरे के नुकसान में भी अपने फायदे देखते हैं। इसलिए हमें इस प्रकार के लोगो से दूरी रखनी चाहिए इसके साथ ही अपने मन के क्रोध, लाभ और अहंकार पर भी नियंत्रण रखना चाहिए।

कर्म में अकर्म और संपूर्ण कर्म योग का सार

-कर्म में अकर्म

भगवान कर्म में अकर्म की स्थिति को बताते हैं अगर इसे एक शब्द में समझाएं तो इसका अर्थ है “कृष्ण समर्पणअस्तु” अर्थात अपने कर्म को और उसके फल को भगवान को सोंपना अकर्म कहलाता है। अकर्म कर्म की वो अवस्था है जिसमें भगवान भक्त से प्रसन्न होकर उसके जीवन के जाने-अनजाने में किये पापों को नष्ट करते हैं और भक्त के हित के अनुसार फल प्रदान करते हैं।

तो दोस्तों मैं हिमांशु और अमित इस व्याख्या को “कृष्ण समपर्ण” में आप तक ला रहे हैं, यह भी अकर्म का एक उदहारण और भक्ति मार्ग पर चलने की प्रेरणा समझ सकते है। जो की गुरुजनो “श्री अमोघ लीला प्रभु जी” और “श्री आशुतोष बंसल जी” के आशीर्वाद से आप तक ला रहे है। अगर हमसे कोई गलती और त्रुटि इस कर्म में हुई हो तो, हम श्री भगवान से और आप सभी से क्षमा चाहते है।

पिछलाअध्याय यहाँ पढ़े- अध्याय- 2 “सांख्य योग”
अगला अध्याय यहाँ पढ़े- अध्याय- 4 “ज्ञान योग”


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12 thoughts on “अध्याय- 3 “कर्म योग” (श्रीमद भगवद गीता सार: जीवन का आधार)

  1. Anshul Panwar says:

    It feels great to enlighten yourself through the summarise form of Geeta, and to understand the difference between doing and undoing with ease. Hoping to see your similar posts as well. Keep enlighten us with the grace.
    God bless us.

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  7. Arun Thakur says:

    हिमांशु जी राधे राधे आप बहुत ही सरल तरीके से भगवत गीता को समझाने का प्रयास करते है और मुझे बहुत अच्छा लगा आपके द्वारा जो समझाया गया है आपका बहुत बहुत धन्यवाद श्री कृष्ण की कृपा से आप इस तरह हमें सरल तरीके से समझाने में सफल हो
    राधे राधे प्रभु जी

  8. Himansh says:

    राधे राधे…

    ये बस श्री कृष्ण के आदेश से लिखने की कोशिश कर रहा हूँ, और यह शब्दावली महान संतो की ही है मै तो बस इसको यहाँ डिजिटल प्लेटफार्म पर आप सभी मित्रो तक ला रहा हूँ…

    आपका धन्यवाद् आपने मेरी मेहनत का उपहार दे दिया. कृपया अपने मित्रो को भी यह दिव्ये ज्ञान साझा जरूर करें.

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