कुछ लोग सोचते है भक्ति करना सिर्फ हर समय भजन कीर्तन करना ही होता है ऐसे लोगो को नहीं पता की उनके जीवन का महत्त्व क्या है। अर्थार्त इस प्रकार के कुछ लोग अपने कर्मा से बचते है और ऐसा करने पर गलत ही जान और सिख पाते है। दोस्तों मै यह भगवद गीता यहाँ आप तक लाने के लिए विद्वानों द्वारा वियाख्य की हुई भगवद का अध्यन करता हूँ और फिर आसान शब्दों में लिखने का प्रयास करता हूँ।
मेरे एक मित्र ने मुझे कहा की मेरा भगवद ज्ञान अभी अधूरा है यह सच भी है क्योंकि हरी अनंत हरी कथा और उनका दिव्य ज्ञान अनंत, शायद मेरी 100 जन्म भी कम है इस ज्ञान को पूर्ण रूप से जानने के लिए, लेकिन मै निरंतर प्रयास करता रहूँगा इसको समझने का क्योंकि यही मेरा कर्मा और जीवन का उद्देश्य है। अगर मेरे शब्दों में और लिखने में कुछ गलती होगई हो तो मै अपने श्री भगवान और आप सभी से क्षमा मांगता हूँ।
इस अध्याय में अर्जुन श्री कृष्ण से प्रश्न करते है कि कुछ लोग आपको निर्गुण निराकार रूप में पूजते है यानी कि परब्रह्म रूप जिसका ना कोई नाम है ना ही आकार, और कुछ लोग आपको सगुण रूप में पूजते है, जैसे कि श्री कृष्ण रूप। आप इन दोनों ही प्रकार में से किस भक्त को अधिक प्रिये मानते हो।
भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को बताते है जो पुरुष अपने मन व् बुद्धि को काबू कर मेरे निर्गुण रूप को पूजते है वह मुझे प्रिये तो है लेकिन इस रूप को पूजना बहुत ही परिश्रम से भरा मार्ग है। ऐसे भक्त को अपने उद्धार के लिए अपने शरीर के अभिमान को त्यागना पड़ता है जो की बहुत ही कठिन रास्ता है।
अर्थार्त श्री कृष्ण अर्जुन को सगुण रूप को ही भजने का सुझाव देते है। जी हां इच्छा हमारी है किस रूप में हम भगवान कि आराधना करना चाहते है।
आगे श्री कृष्ण अर्जुन को बताते है, जो भक्त मेरी कृष्ण रूप में भक्ति करता है मै उसका उद्धार स्वयं करता हूँ। दोस्तों यहाँ भक्ति का अर्थ यह बिलकुल नहीं है की आपको अपने सब कर्म छोड़ कर बस भजन कीर्तन में लगे रहना है भक्ति का अर्थ है अपने सभी कर्मा निष्काम भाव से करना और अपने कर्मफल में रूचि ना रखना। अर्थार्त बुद्धि भगवान में लगा कर ही अपना काम इत्यादि पूर्ण करना चाहिए।
आगे भगवान कहते है मन व् बुद्धि मुझमे लगाना आसान नहीं, लेकिन अभ्यास और दृण इच्छा से इसको काबू करना चाहिए। और जो अभ्यास भी नहीं कर सकता, श्री कृष्ण बता रहे है कि बस मेरा स्मरण और मेरी बातो का विचार करने से भी ऐसे भक्तो का कल्याण मै स्वयं करता हूँ। लेकिन ऐसे लोगो को अपने कर्म के लाभ का त्याग, लोभ-लालच का त्याग कर मेरे ज्ञान योग को अपनाना चाहिए।
आगे श्री कृष्ण बताते है कि सबसे बड़ी पूजा कर्मो के फल के त्याग कि होती है, क्योंकि ज्ञान से बड़ा है ध्यान और ध्यान से बड़ा है कर्मफल का त्याग।
जो व्यक्ति स्वार्थ रहित है, जो सुख-दुःख एक सामान देखता है, हर स्तिथि में संतुष्ट रहता है और अपने अप्राधिओं को क्षमा करने कि भावना रखता है ऐसे भक्त मुझे अधिक प्रिये है और अगर कोई ऐसा करने का प्रयास भी करे तो भी वह मुझे प्रिये है। अर्थार्त अपने भाव को शुद्ध रखना चाहिए और कम से कम सही मार्ग चलने का प्रयास तो करना ही चाहिए।
महत्वाकांक्षा रहित होना क्यों जरूरी है?
श्री कृष्ण कहते है मनुष्य को महत्वाकांक्षा रहित होना चाहिए क्योंकि धन दौलत सांसारिक भोग उन्हें बिलकुल प्रिये नहीं और यह अस्थायी ही है जो कि मृत्यु के बाद यही रह जाने है। लेकिन अगर आपकी महत्वाकांक्षा कुछ अच्छा करने कि है जो सामाजिक हित में या किसी के कल्याण के लिए है तो ऐसी महत्वाकांक्षा बहुत ही उत्तम और विशेष है।
योगी भक्त कैसे होते है?
जब हमारी निंदा होती है तो हम बहुत ही शोक में दुब जाते है और बहुत ही क्रोध में आ जाते है लेकिन योगी भक्त जो भगवान के दिए ज्ञान को समझलेता है वह अपनी निंदा और अपनी प्रशंसा दोनों को ही एक सामान रूप से देखता है और निरंतर अपने कर्म में लगा रहता है और अहंकार, लोभ-लालच जैसे विकारो से दूर रहता है।
इसलिए श्रद्धा युक्त भक्त भगवान को अधिक प्रिये है क्योंकि बिना श्रद्धा कि भक्ति में शंका होती है ऐसे भक्त आस्तिक (यानी भगवान के होने में कुछ विश्वास रखने वाला) तो होते है लेकिन उनके मन और बुद्धि के बिच हमेशा भगवान के अस्तित्व को लेकर संदेह रहता है। और वह भगवान के ज्ञान को कभी जान नहीं पाते और जानना भी चाहते है तो बस अपने (इच्छाएं) लालच की पूर्ति के लिए ही।
इसलिए अपनी भक्ति में श्रद्धा भाव लाइए और श्री कृष्ण के दिए भगवद ज्ञान के मार्ग पर चलिए क्योंकि आपका कल्याण भगवान ही कर सकते है।
इस अध्याय का सार-
दोस्तों इस अध्याय में श्री कृष्ण चेतावनी दे रहे है उन लोगो को जो भगवान को ऐसे रूप में पूजते है जिसका कोई आकार नहीं है इसे पूजना गलत तो नहीं पर बहुत कठिन है इसलिए वह अपना रहस्य हमारे कल्याण के लिए बता रहे है कि हमे श्रद्धा भाव से श्री कृष्ण को पूजना चाहिए।
जिसका सरल अर्थ है मन का लोभ-लालच छोड़ कर कर्मफल में रूचि ना रख कर हमे भगवान का स्मरण करते हुए अपने जीवन का हर कार्य पूरा करना चाहिए। और इस मार्ग पर चलने वालो कि पूरी जिम्मेदारी भगवान खुद स्वयं ले रहे है और जब भगवान आपके साथ स्वयं हो तो इसमें कोई संदेह नहीं आपका इस भौतिक जगत ही क्या किसी भी जगत व् लोक में बुरा हो ही नहीं सकता है।
तो इस अध्याय को यही पूर्ण करते है। प्रेम से बोलो राधे राधे। जय श्री कृष्ण।।
ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय ॥
हरे कृष्ण हरे कृष्ण
कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम
राम राम हरे हरे ॥
गुरु आशीर्वाद-
श्री अमोघ लीला प्रभु जी
प्रेरणादायक-
श्री आशुतोष बंसल
पिछला अध्याय यहाँ पढ़े- अध्याय- 11 “विश्वरूपा दर्शन योग”
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First of ol very well written. Through reading only i can feel d calmness. Kudos to yr work. Keep doing it amigo.
हिमांशु जी बहुत अच्छा कार्य कर रहे है आप बहुत सरल तरीके से समझाया आपने की कैसे अपने जीवन की पूर्ण जिम्मेदारी श्री ठाकुर जी को कैसे सौंप दे और किस तरह कर्मफल की चिंता ना करते हुए अपनी बुद्धि बिहारी की के चरणकमलो में लगा कर सदैव उनका चिंतन करे आप जो कार्य कर रहे है और भक्ति मार्ग पर चलने का जो विचार हमें दे रहे है आपका बहुत बहुत धन्याद श्री जी आपको इस पथ पर सदैव चलायमान रखे और आप अपने मकसद में कामयाब हो ऐसे ही हमें आगे भी अपनी बुद्धि के अनुसार हमें समझाने में सफल हो!
जय जय श्री राधे
हरे कृष्ण हरे कृष्ण
कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम
राम राम हरे हरे