अध्याय- 11 “विश्वरूपा दर्शन योग”

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अभी तक हमने श्रीमद भगवद गीता के पिछले अध्याय में श्री कृष्ण के विश्वरूप को जाना था. इस अध्याय में अर्जुन श्री कृष्ण के विश्वरूप अथार्त विराट रूप को देखने की जिज्ञासा दिखाता है. तो आईये पढ़ कर महसूस करें भगवन श्री कृष्ण का भव्य विराट रूप.

हरी बोल

अर्जुन कहते है हे माधव! आपने मुझे वेदो उपनिशदों का ज्ञान समझाया अपनी विभूतिया बताई और मेरे भौतिक जीवन के व्यर्थ के ज्ञान का नाश करने में मेरी सहायता की. आपने मुझे मोह लालच इतियादि विकारो से मुक्त कर दिआ.

अर्जुन आगे बोले अगर ऐसा संभव हो जो विश्वरूप आपने मुझे बतलाया मैं उस रूप के दर्शन पाना चाहता हूँ. श्री कृष्ण के दिए ज्ञान से अर्जुन उन्हें जान तो चूका था पर अब वह उनके विश्वरूप के दर्शन पाने की जिज्ञासा में था.

अर्जुन परम गोपनीय ज्ञान जान चुके थे जो बड़े से बड़े ऋषि मुनि देवता भी नहीं जानते है. ऐसा श्री कृष्ण ने अर्जुन को ही क्यों बताया क्योंकि प्रभु अपने भक्तो से ज्यादा किसी और से प्रेम नहीं करते और वह भक्तो के कल्याण हेतु हर संभव प्रयास करते है. अब इसे हम ही ना जाने और ना समझे तो यह हमारी मूर्खता है.

हमने श्री कृष्ण को माखन चोर, सखियों से अठखेलिआ करते सुना और जाना है. परन्तु क्या उनका विश्वरूप भी ऐसा ही होगा. तो इसका उत्तर है नहीं. आईये जानते है भगवान श्री कृष्ण का विश्वरूप, इसे जानिए ही नहीं इसकी शक्ति को महसूस भी कीजिये.

श्री कृष्ण अर्जुन की जिज्ञासा देख कहते है अर्जुन अब तू मेरे ना-ना प्रकार सेकड़ो असंख्य बुझाओ वाले रूप को देखेगा. भगवान अपने आशर्य जनक रूप को दिखलाते है, इसी रूप में अर्जुन देखता है हमारे जड़ और चेतन के मालिक श्री कृष्ण ही है और यह सब भौतिक जगत सिर्फ और सिर्फ कृष्ण की माया है.

श्री कृष्ण कहते है हे अर्जुन ! अब मेरे इस रूप में तू सम्पूर्ण जगत को देख और जो जो तू देखना चाहता है सब इस रूप में देख. लेकिन ये सब देखना तेरी प्राकर्तिक दृष्टि से संभव नहीं इसे देखने के लिए मैं तुझे दिव्ये दृष्टि देता हूँ.

आप भी यह भव्य रूप अनुभव कीजिये और अर्जुन के तरह ही पूर्ण फल और सौभाग्य प्राप्त कीजिये.

अनेक भूषणो से युक्त, अनेक मुख वाले विराट रूप को अर्जुन ने देखा, उस रूप को देखना हज़ारो सूर्ये, हज़ारो चन्द्रमा को देखने सामान है और यह सोचने वाली बात है हज़ारो सूर्ये और चन्द्रमा का प्रकाश व् ताप कितना घनघोर होगा.

अर्जुन को श्री कृष्ण के विश्वरूप में यह जगत जिसमे वो और हम है और इसके अलावा अलग-अलग असंख्य जगत विद्यमान दिख रहे है, यह सब अर्जुन की कल्पना के परे है और वह श्रद्धा भक्ति से हाथ जोड़ देख रहा है और चकित होकर विराट रूप के सामने नक् मस्तक खड़ा है.

हाथ जोड़ अर्जुन श्री कृष्ण के विराट रूप में महादेव, ब्रह्मा, दिव्या सर्प, देवतागढ़ और अनेको-अनेको भुजा, मुँह, अनेको नेत्रा दिख रहे है.

हे विश्वरूपा! मैं आपके ना आदि को ना अंत को देख पा रहा. वह शब्दों में अपना आशर्य वियक्त करते हुए कहता है मैं ना तो आपकी शुरुआत देख पा रहा ना ही अंत, आप मुझे हज़ारो सुदर्शन धारण करे दिख रहे है.

आपने जैसे मुझे बताया था अपनी विभूति के बारे में, मैं वही सब देख रहा हूँ आप मुझे नष्ट रहित परम अक्षर के रूप में दिख रहे है. अर्जुन जान रहा है श्री कृष्ण ही सनातन पुरुष है और हर तरफ वही विस्तारित है.

अर्जुन श्री कृष्ण के रूप के वर्णन की कोशिश करता है और कहता है मैं इस रूप को जगत का पालन करता देखता हूँ जिसका तेज़ हज़ारो सूर्ये व् चन्द्रमाँ से भी अधिक है, मैं इसमें समस्त दुनिया को देखता हूँ, धरती आकाश, वायु देखता हूँ और इस अलौकिक रूप में श्री कृष्ण आपको देखता हूँ, लेकिन यह रूप जितना अलौकिक है उतना ही भयंकर भी, जिससे तीनो लोक डर कर व्याकुल हो रहे है.

देवताओ के समूह श्री कृष्ण में विलीन होते है दिख रहे है ऋषि मुनि उनकी स्तुति करते दिख रहे है. कालांतर में ११ रूद्र रूपों में प्रकट हुए शिव, १२ आदित्य, ८ वसु, साध्यगण, विश्वदेवा, पितरों का समुदाय ये सब धन्य होकर श्री कृष्ण को देख रहे है.

भगवान श्री कृष्ण का विराटरूप बहुत ही विकराल और बेचैन कर देने वाला है जिससे अर्जुन भी भयभीत होने लगे. अर्जुन को सभी काल कृष्ण में दिख रहे है और यह रूप आकाश में कहा तक जा रहा है इसका अंदाज़ा लगाना बहुत ही मुश्किल है.

भयंकर और विकराल रूप में हर तरफ भयानक दृश्य देख रहा है और अब उसे दिख रहा है सभी कौरव और सभी महारथी श्री कृष्ण के मुँह में भागते हुए जा रहे है और सभी उनके मुख से निकल रही अग्नि में जल रहे है कुछो को वह मुँह के अंदर खा रहे है. कुछ उनके दातो में फसे दिख रहे है, यह सब बहुत ही भयानक दृश्य देख अर्जुन बड़ा ही भयभीत हो रहा है.

अर्जुन को सब श्री कृष्ण को प्राप्त होते दिख रहे है. जैसे पतंगे वापसी आग में जा रहे हो उसी प्रकार सभी जीव अर्जुन को विश्वरूप से निकलती ज्योति में जाते दिख रहे है. और यही हम सबका अंत भी है. इसी प्रकार हम मृत्यु के बाद अग्नि में देह के साथ विलीन हो जाते है.

अर्जुन कहते है हे विष्णु! आपका उग्र ताप सबको तापा रहा है मेरे साथ समस्त संसार जल रहा है, आपका यह रूप सबको खा रहा है. अर्जुन वियाकुल होकर पूछता है कि आप इस रूप में कौन है मुझे बताइये आपका यह रूप मुझे ओर ज्यादा शंका में डाल रहा है.

विषरूपी कृष्ण अर्जुन को बताते है कि मैं तीनो लोको का नाश करने वाला, तेरे युद्ध न करने पर भी मैं सब अधर्मिओं का संहार कर देने वाला अविनाशी हूँ.

कृष्ण अर्जुन को कहते है हे “सव्यसाची” जिसका अर्थ है दोनों हाथो से धनुष चला लेने वाला, तू मेरे निमित मात्र बन युद्ध कर और इसे जीत कर सम्पूर्ण भोग कर, और अपना कर्मा पूर्ण कर, यदि तू ऐसा नहीं भी करेगा तो तू सबको मारा हुआ ही जान.

अर्जुन ने युद्ध छोड़ दिआ था कि मैं अपनों को नहीं मारूंगा पर अब अर्जुन देख रहा था कि कैसे ही सब विश्वरूप के मुख कि अग्नि से जल रहे है. वह यह सब देख सून पड़ चूका होता है और अपने दोनों हाथ जोड़ लेता है क्योंकि यह सब दृश्य उसकी कल्पना के परे होता है.

अर्जुन भाव से हिम्मत जुटा कर कहते है प्रभु सभी राक्षश डर कर भाग रहे है, समस्त ऋषि, देव आपको नमस्कार कर रहे है, आप ही आदि देव सच्चिदानंद ब्रह्म रूप आप ही है, आप कल भी थे, आज भी है और आने वाला कल में भी अनंत तक आप ही होंगे. अब अर्जुन अपनी सुध बुध को नियंत्रण कर कहते है हे प्रभु! आपको मेरा बारम बार हज़ारो बार प्रणाम है आगे से पीछे से हर दिशा ने मेरा प्रणाम है. आप ही ब्रह्म और उनके सभी लोको के पिता है.

अर्जुन श्री कृष्ण से क्षमा मांगते है कि अर्जुन उनके इस रूप को जानता नहीं था और उन्हें अपना सखा समझ उनसे उपहास किया करता था और जाने अनजाने उनको कुछ भी कह दिया करता था. तीनो लोको में आपके सामान तो कोई है ही नहीं, अर्जुन स्तुति करता है आप सभी के अपराध सहन करते है और मैं आपसे क्षमा मांगता हूँ.

अर्जुन अब भगवान से विनती करता है कि वह अपने चतुर्भुजः विष्णु रूप के दर्शन दे.

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भगवान कहते है मेरे ये रूप आज तक किसी ने नहीं देखे है, चाहे कोई कितनी ही तपस्या करले मेरे इस रूप के दर्शन करना असंभव है लेकिन तू मेरा भक्त है तेरे कल्याण के लिए मैं अपने इस रूप का दर्शन भी देता हूँ.

दोस्तों यह धरती दुखो का घर कहलाता है जिसका अंत मृत्यु और दर्द है. चाहे आप कितने ही सुख कमाले लेकिन अंत में दर्द ही मिलता है लेकिन जो भगवान के कहे ज्ञान चलता है वह इसी लोक में नहीं बल्कि हर योनि और लोक में सुख पाता है.

आगे श्री कृष्ण अर्जुन को धीरज देते हुए कहते है कि तू व्याकुल ना हो और मेरे चतुर्भुर्ज रूप के दर्शन कर और दर्शन कर अर्जुन का चित शांत होने लगता है. श्री कृष्ण अर्जुन को बड़ी गहन बात बताते है कहते है ना वेदो से, ना दान से, किसी तरह मेरा ये देखा नहीं जा सकता है क्योंकि मुझे ना ढोंग पसंद, ना दिखावा, सभी देवता भी इस रूप से दुर्लभ है इसे देखने का बस एक असंभव उपाए है, जो है अनन्य भक्ति और श्रद्धा प्रेम पूर्ण भाव जिसमे ना छल हो ना ही कपट, इसी तरह निष्काम कर्म आसक्ति रहित भक्ति से मुझे पाया जा सकता है.

अध्याय का सार

दोस्तों वैसे तो उप्पर व्यख्या में सब बहुत स्पष्ट है, लेकिन मैं कुछ पन्क्तिओ में आपको समझाना चाहूंगा, भगवान् अपने भक्त कि सभी इच्छा पूर्ण करते है चाहे वह कोई असंभव इच्छा ही क्यों ना हो और इसी के साथ भगवान् यह ज्ञान भी देते है कि हमे अपने कर्मा से भागना नहीं चाहिए जिसके कारण हम अपने सुखो का ही अंत करते है जैसे कि उन्होंने अर्जुन को कहा कि तू युद्ध भी नहीं करेगा तो भी मैं सब अधर्मिओं का अंत कर दूंगा लेकिन तू मेरा निमित बन्न कर लड़ेगा यानि निष्काम कर्म करेगा तो बदले में जीत और सुख, साम्राजिये सब भोगेगा.

आशा है इस अध्याय में विश्वरूपा के दर्शन का पुण्य फल जितना अर्जुन को मिला है उतना हमे भी मिलेगा. बस जरुरत है महसूस करके इसका अध्यन करने की.

-जय जय श्री राधे

प्रेम से बोलो –
॥ राधे राधे ॥
॥ जय श्री कृष्ण ॥

ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय ॥

हरे कृष्ण हरे कृष्ण
कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम
राम राम हरे हरे ॥

गुरु आशीर्वाद-
श्री अमोघ लीला प्रभु जी
प्रेरणादायक-
श्री आशुतोष बंसल
लेख सहायक-
श्री अमित राजपूत

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