श्री राधे
“If you want to do something special then you must know something miracle.”
-Himanshu Bansal
दोस्तों उप्पर लिखी पंक्ति का अर्थ है कि अकर्म से विकर्म की प्राप्ति। जिसका अर्थ है भगवान के दिए ज्ञान को प्राप्त करके कर्म करना और उन कर्मों से कुछ ऐसा कर जाना जिससे विशेष कर्म सम्भव हो। इसको उदाहरण से समझते है, दोस्तों हमनें अपने जीवन में देखा है वैज्ञानिक स्थिर हो कर सामाजिक कल्याण के लिए कुछ न कुछ नई खोज करते है, वह अपने इस कर्म में न तो अपने विषय में सोचते हैं और न ही अपने कर्म के फल की चिंता करते हैं। कर्म के फल की चिंता से यहाँ मतलब है कि वो नहीं जानते कि उनके प्रयोग सफल होंगे या नही, पर फिर भी वो निरन्तर प्रयास करते हैं।
हमने पिछले चार भागों में सन्यास, ज्ञान और कर्म योग को जाना, अब इस भाग में भी भगवान इन्हीं योगों के महत्व को विस्तार से समझा रहे हैं। तो दोस्तों आप और हम गीता के इस ज्ञान सागर में बेहते हुए भाग पांच को समझेंगे।
अर्जुन कहते है कि प्रभु आप सन्यास से बेहतर कर्म को बताते हैं, फिर आप सन्यास की विशेषता भी बताते हैं जिससे प्रभु में मोहित हो गया हूँ कि मैं कौनसा मार्ग चुनूँ ? दोस्तों हम जब किसी से ज्ञान प्राप्त करते हैं तो हमें हक होता है कि हम उससे पूछ के अपने संशय को दूर कर पायें।
श्री कृष्ण बताते हैं संयास योग और कर्म योग दोनो ही फायदा पहुँचाने वाले हैं। अर्थात दोनों की Final Destination एक ही है। लेकिन भगवान के अनुसार सन्यास योग कठिन मार्ग है तो अर्जुन को कर्मयोग ही श्रेष्ठ बताते हैं क्योंकि कर्मयोग किसी भी परस्थिति में किया जा सकता है।
क्या आप सन्यास के “योग्य” हैं?
आईये जानते है- हे अर्जुन ! जो पुरुष ईर्ष्या नहीं करता, गुस्सा नहीं होता,न कुछ पाने की इच्छा होती और वो ज्ञान द्वारा परब्रह्म को जान जाता है तो ऐसा मनुष्य सन्यासी बनने योग्य होता है और यूँ कहें सन्यासी ही होता है।
कुछ लोग ऐसा सोचते हैं कि सन्यास और कर्म योग से अलग-अलग फल मिलते हैं, कृष्ण ऐसे लोगो को मूर्ख बता रहे हैं क्योंकि ऐसे लोग कभी सफल नहीं होते, खुद तो अज्ञानी होते ही है और दूसरों को भी अज्ञानता के मार्ग पर ले जाते है। श्री कृष्ण के अनुसार सिर्फ भगवा कपड़ा धारण करना सन्यास नही है। यहाँ भगवान समझना चाह रहें कि मार्ग चाहें सन्यास योग का हो या कर्मयोग का, दोनों ही रास्ते आप को भगवान की ओर ले जाएंगे जिससे आपको परमधाम की प्राप्ति होगी।अर्तार्थ ढोंग का कपडा ना ओढे बल्कि भगवान के ज्ञान के मार्ग पे चलें।
भगवान पाखण्डियों के बारे में बताते हैं कि ये वह लोग हैं जो दुसरो को ज्ञान दिए फिरते हैं कि हर समय पूजा करो देवी देवतओं को अर्क चढ़ाते रहो, ऐसे लोगो को भी भगवान मूर्ख बता रहें है। श्री कृष्ण के अनुसार ऐसा करने की आपको कोई आवश्यकता नहीं है। भगवान के अनुसार परिवार व कर्म कर्तव्य में रहकर निष्काम कर्म करना चाहिए, अर्थात अपने कर्तापन को छोड़ कर, अपनी इन्द्रियों को काबू कर, बिना उसके फल की इच्छा कर भगवान को समर्पित होकर कर्म करना चाहिए।
सन्यासी और एक आम व्यक्ति (जैसे की हम) में अंतर
भगवान समझाते है कि सभी जीवों की आत्मा मुझसे ही निकली है अर्थात वो मैं ही हूँ और उसी को जानना सम्पूर्ण है। सन्यासी वो है जो ज्ञान को समझता है, जीता है, श्वास भी लेता है, खाता भी है, और जीवन यापन की सभी क्रियाएं भी करता है जो जीने के लिए आवयश्क होती है।
किंतु वह जानता है कि ये जितनी भी क्रियाएं हो रही है वह करने वाला परमात्मा है। इसी के विपरीत हमारे जैसा अपने अंहकार में सोचता है कि यह सब करने वाले हम हैं। उदाहरण से समझते हैं, आप 100 करोड़ के मालिक हैं और आपके पास विलासता (Luxury) की हर वस्तु है और मान लीजिये आप जब भी भोजन लेकर उसे खाने के लिए बैठें उसी वक्त आपके पेट में दर्द होना शुरू हो जाए और ये निरंतर होते रहे। तो क्या आपके 100 करोड़ की ताकत आपको उस समय भोजन करने की शक्ति दे पाएगी। यहाँ तक की आपके सुख की ऐसी तैसी हो जायेगी।
तो यह बहुत स्पष्ट है कि चाहें राजा हो या साधु, बिना परमेश्वर की इच्छा के कुछ नहीं कर सकता जैसा की हमने सुना है की प्रभु की इच्छा के बिना एक पत्ता तक नहीं हिलता है। फर्क ये है कि सन्यासी सब समझता है और हमारे जैसा अंहकारी फिर भी नहीं झुकता।
कर्म योगी कौन?
भगवान के अनुसार कर्मयोगी अंदर से शांत होता है क्योंकि वो भगवान को जान चुका होता है। ऐसे योगी के पास नौकर, नौकरी, सभी प्रकार की सम्पदा होती है, लेकिन वह भगवान को पाने के लिए सभी चीज़ों का त्याग कर देता है। इसका सबसे उत्तम उदाहरण है हमारे नरसी मेहता जी– यह भगवान के महाभक्त थे। एक समय था इनके पास 1 समय का खाना खाने के भी पैसे नहीं हुआ करते थे. श्री कृष्णा जी ने उनको इतनी दौलत दी कि उनकी 10 पुश्ते बैठ खाएं तो भी वो खत्म न हो। लेकिन हमारे नरसी मेहता जी ने वो सारी दौलत को समाजिक कार्यों में अर्पण कर दिया। उसका भोग अपने सुख के लिए नहीं किया। लेकिन इसके विपरीत हमारे जैसा व्यक्ति होता तो वह दुनिया दारी में अपने यश की चर्चा करता और लोभ लालच में दिखावा करता और गलत काम करता।
यही भेद है एक कर्मयोगी और हमारे जैसे व्यक्ति में।
कुछ लोग तर्क देते है कि हम कैसे दुनिया दारी से बचें, जिम्मेदारी से बचे। क्योंकि जिस दुनियाँ में हम रहते हैं उस दुनिया में कर्मयोगी और सन्यासयोगी बनना बहुत मुश्किल है। और ऐसे कहते हमने अपने घर में ही सुना होगा। अब भगवान इन तर्क देने वालो का खंडन करते हुए बताते हैं कि मनुष्य को कमल के फूल के जैसे होना चाहिए। कीचड़ में खिलते हुए भी स्वच्छ और पवित्र रहता है उसी प्रकार संसार रूपी कीचड़ में हमे भी दुनियाँ दारी के कर्म कर्तव्य को निष्काम भाव से पूरा करना चाहिए।
“स्वभाव”
इंसान अपने स्वाभव (behaviour) और प्रकृति (Nature) के अनुसार काम करता है। तो हमें अपना स्वभाव जानना चाहिए, अगर वो बुरा हो तो उस पर नियंत्रण कर हमें भगवान के ज्ञान अनुसार कर्म करना चाहिए। क्योंकि श्री कृष्ण के अनुसार जीत उसी की होती है जो अपने स्वाभव (behaviour) पर काबू कर लेता है। तो इसलिए परमात्मा की सचाई को जानियें। जैसे, प्रकाश के होने पर अंधेरा भाग जाता जाता है उसी प्रकार भगवान के ज्ञान की ज्योति से स्वभाव का परिवर्तन भी होता है। भगवान के इस करोड़ो साल पहले के ज्ञान को आज भी हर कोई नहीं समझ पाता। जिसके कारण आत्मा को मुक्ति नहीं मिलती अर्थात ऐसी दुष्ट आत्मा चांडाल रूप में जन्म पाती रहती है और यही भटकती रहती है जैसे की हम आज भी इस संसार में जन्मे है और ज़िन्दगी में भागे जा रहे है यह बिना सोचे की सब हासिल करके भी अंत मिटटी में मिल कर ही होगा।
सम भाव ही ब्रह्म स्थिति है
श्री कॄष्ण के अनुसार हमें यानी मनुष्य को सभी जीवो (Humans and animals) को एक समान भाव से देखना चाहिए। उदहारण के लिए हमारी गौ माता सड़को पर घूमें और हम अन्य पशुओं को पालतू बना कर घर में रखें। इससे बड़ा हमारा क्या दुर्भाग्य होगा जिस गौमाता को श्री कृष्ण इतना स्नेह करते थे उनकी गौमाता आज दर दर भटक रही है कूड़ा खा रही है। कहने का तात्पर्य्य है की पशु से प्रेम है तो सभी से एक सामान करो और कुछ महानुभाव् तो पशु छोड़ो अपने माता पिता को ही सड़को पर मरने छोड़ देते है। वो नहीं जानते “कर्मा की डायरी” उनके अब्बा यमराज जी देख रहे है।
ज्ञान की प्राप्ति कैसे करें?
ज्ञान की प्राप्ति बहुत ही सरल है। भगवान के अनुसार अति को रोंके, मन को काबू करें, अपने काम-क्रोध पर काबू करके संयम से निष्काम कर्म करें। असली ज्ञान यही है।
धन्य-धान्य व अपनो का प्यार अलग ही आनंद देता है। जिसके लिए हम जीवन भर दौड़ते रहते है लेकिन इसी के विपरीत कुछ ओर ही है जो परमानन्द देता है। वो है गीता का ज्ञान।
इसलिए दुनियाँ दारी को छोड़ भगवान बताते हैं ध्यान के माध्यम से ज्ञान को समझे, दोनो आंखों को माथे और नाक के बीच केंद्रित करके ध्यान करना चाहिए। यदि हम नियमानुसार प्रतिदिन ध्यान करें तो हम अपनी इन्द्रियों पर विजय पा सकते हैं। ऐसा व्यक्ति त्याग कर भगवान के कहे मार्ग पर चलने योग्य बन जाता है और श्री कृष्ण कहते हैं कि मुझे ऐसे ही लोगो के होने का एहसास होता है क्योंकि वह भक्तिमार्ग पर चलने के योग्य होते हैं। इस प्रकार “वह मुझे और मैं उन्हें प्राप्त करता” हूँ। बाकि “हमारे जैसे लालची,लोभी” तो इस दुनिया आते है और जाते है।
तो दोस्तों श्री कृष्ण के ज्ञान की ज्योति से अपने पापों को नष्ट करिए और जीवन का परमानंद पाईये। इस भाग में भगवान ने अर्जुन को यही समझाया है की अंतिम नाम “राम” का है वही सत्य है। अगर समझ गए तो आपका ही फायदा है, हांजी यह फायदा सोचने में कोई पाप नहीं। अगर इस वियख्या को लिखने में कोई गलती हुई हो तो मै आप सभी और अपने भगवान का क्षमा प्रार्थी हूँ।
गुरु आशीर्वाद-
श्री अमोघ लीला प्रभु जी
प्रेरणादायक-
श्री आशुतोष बंसल
लेख सहायक-
श्री अमित राजपूत
पिछलाअध्याय यहाँ पढ़े- अध्याय- 4 “ज्ञान योग”
अगला अध्याय यहाँ पढ़े- अध्याय- 6 “आत्म संयम योग”
Acha likhe ho aap log.. Aur Bhi aage ka likhiyega.. Jai Shri Krishna
? Jai shree Krishna
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